़़़़़जिंदगी़़़़
जब तक,
हाँ या ना होगा
तब तक
ठहर जाना भी
गुनाह होगा
जब तक
मिले ना
मंजिल अपनी
तब तक
राँह बदलना भी
कहाँ आसान होगा।
मौत भी
बनती है
नजीर उनकी
जिन्हें बस अपनी
जिंदगी का ही
इक नशा होगा
मंजिले भी
मिलती है बस
उन्हीं को अपनी
जिन्हें मौत पे भी
आता हँसना होगा
क्यूँ डूब
डूब जाती है
कश्तियाँ दरियाँ में
दरियाँ को
रोकने का भी
कुछ तो
फलसफा होगा।
सूर्येश प्रसाद निर्मल शीतलपुर।

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